डॉलर के मुकाबले कैसे तय होता है रुपये का रेट, यहां जानें पूरा गणित
Rupee Exchange Rate रुपये की मजबूती और कमजोरी की क्या वजह है। साथ ही सवाल उठता है कि भारतीय रुपया की मजबूती और कमजोरी कौन तय करता है। साथ ही इसे तय करने का फॉर्मूला क्या है। आइए जानते हैं इसके बारे में विस्तार से..
नई दिल्ली, टेक डेस्क। भारतीय रुपया सोमवार को अपने सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया था। जब डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 78 रुपये हो गई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि भारतीय रुपया की मजबूती और कमजोरी कौन तय करता है। साथ ही इसे तय करने का फॉर्मूला क्या है। आइए जानते हैं इसके बारे में विस्तार से..
क्या होता है एक्सचेंज रेट
जिस मूल्य (दर) पर एक देश की मुद्रा दूसरे देश की मुद्रा से बदली जाती है उसे ‘एक्सचेंज रेट’ कहते हैं। किसी भी देश की करेंसी का मूल्य बाजार में उसकी मांग और आपूर्ति पर निर्भर करता है। जैसे एक सामान्य व्यापारी सामान की खरीद-फरोख्त करता है, वैसे ही फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय होता है। एक्सचेंज रेट दो प्रकार के हो सकते हैं- स्पॉट रेट यानी आज के दिन विदेशी मुद्रा का मूल्य और फॉरवर्ड रेट यानी भविष्य में किसी तारीख के लिए एक्सचेंज रेट।
असल में एक्सचेंज रेट में दो करेंसी होती हैं
- बेस करेंसी
- काउंटर करेंसी।
पहला तरीका, जिसमें बेस करेंसी किसी अन्य देश की होती है जैसे डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत। इसमें डॉलर बेस करेंसी है, जबकि रुपया काउंटर करेंसी। दूसरा तरीका, जिसमें घरेलू मुद्रा बेस करेंसी होती है और विदेशी मुद्रा काउंटर करेंसी। वैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिकांशत: एक्सचेंज रेट व्यक्त करते समय डॉलर को बेस करेंसी के तौर पर माना जाता है।
फ्लोटिंग या फिक्स्ड रेट एक्सचेंज रेट फ्लोटिंग या फिक्स्ड होते हैं। फ्लोटिंग एक्सचेंज का मतलब यह है कि करेंसी का मूल्य बाजार के रुख पर तय हो रहा है और समय-समय पर इसमें उतार-चढ़ाव आ रहा है। कुछ देशों में सरकार एक्सचेंज रेट तय करती है, जिसे फिक्स्ड एक्सचेंज रेट कहते हैं। उदाहरण के लिए सऊदी अरब की मुद्रा रियाल, जिसकी कीमत वहां की सरकार तय करती है।
रियल एक्सचेंज रेट
किसी भी करेंसी का रियल एक्सचेंज रेट, नॉमिनल एक्सचेंज रेट से भिन्न होता है। अक्सर आपने अखबार में पढ़ा होगा कि चीन ने अपनी करेंसी युआन को अंडरवैल्यू करके रखा है। इसका मतलब यह है कि युआन का जितना मूल्य होना चाहिए, उतना नहीं है। इसे समझने के लिए हम रियल एक्सचेंज रेट की मदद लेते हैं। इससे पता चलता है कि किसी देश की करेंसी का वास्तविक मूल्य क्या है। उदाहरण के लिए एक डॉलर की कीमत 6.8 युआन है। इस तरह डॉलर-युआन का नॉमिनल एक्सचेंज रेट 1/6.8 यानी 0.147 हुआ। मान लीजिए चीन में एक बर्गर की कीमत 20 युआन जबकि अमेरिका में 5.30 डॉलर है। इस तरह चीन में डॉलर में एक बर्गर की कीमत 20 गुणा 0.147 यानी 2.94 डॉलर होगी। चूंकि अमेरिका में एक बर्गर की कीमत 5.30 डॉलर है, इसलिए युआन और डॉलर का रियल एक्सचेंज रेट 2.94/5.3 यानी 0.55 होगा। इस तरह रियल एक्सचेंज रेट एक से नीचे आया। जिसका मतलब है कि डॉलर के मुकाबले युआन करीब 45 प्रतिशत अंडरवैल्यूड है। आदर्श स्थिति में रियल एक्सचेंज रेट एक होना चाहिए।
कैसे मजबूत होता है रुपया और क्यों आती है गिरावट, जानिए
नई दिल्ली (बिजनेस डेस्क)। डॉलर में कमजोरी के कारण आखिर रुपए में मजबूती क्यों आती है? जितना मासूम यह सवाल है उतना ही मासूम इसका जवाब भी है। देश की आबादी में एक बड़ा हिस्सा रखने वाले छोटे बच्चे भी अक्सर ऐसे ही मासूम से सवाल अपनों से पूछ बैठते हैं। हम भी आपको बेहद आसानी से समझाने की कोशिश करेंगे कि आखिर डॉलर और रुपए के बीच चलने वाली उठापठक कैसे रुपए की हालत कभी पतली तो कभी मजबूत कर देती है।
रुपए ने पार किया 65 का स्तर, बढ़ गई लोगों की चिंताएं:
गुरुवार को जैसे ही रुपए ने 65 का स्तर पार किया निवेशकों के साथ साथ ऐसे लोगों की चिंताएं बढ़ गईं जिनका सरोकार अक्सर डॉलर के साथ होता है। मसलन अमेरिका जाने वालों को डॉलर चाहिए होता है, विदेश में पढ़ने वाले बच्चों को पैसे भेजने होते हैं जो कि रुपए के हिसाब से ही डॉलर में बदलते हैं। दोपहर तक रुपया 65 के बेहद करीब कारोबार करता रहा।
रुपए की हालत क्यों पतली करता है डॉलर?
रुपए की हालत पूरी तरह मांग एवं आपूर्ति और आयात एवं निर्यात पर निर्भर करती है। दरअसल हर देश के पास उन उन देशों का मुद्रा भंडार होता है जिनसे वो लेनदेन यानी सौदा (आयात-निर्यात) करता है। इसे सामान्य भाषा में विदेशी मुद्रा भंडार कहा जाता है। इसका मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? डेटा आरबीआई की ओर से जारी किया जाता है। इसके घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा की स्थिति बदलती रहती है। जैसा कि डॉलर को वैश्विक करेंसी का रुतबा प्राप्त है लिहाजा रुपए की स्थिति को इसी के सापेक्ष तौली जाती है। भारत अपनी जरूरत का करीब दो तिहाई कच्चा तेल विदेशों से आयात करता है। देश मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों का भी बड़े पैमाने पर आयात करता है। कई कार कंपनियां अपनी कार के अधिकांश कल-पुर्जों के लिए आयात पर ही निर्भर होती हैं। दाल और खाद्य तेल भी बड़े पैमाने पर हमारे यहां आयात किए जाते हैं। इसलिए भारत के विदेशी मुद्रा भंडार से ज्यादा रकम बाहर चली जाती है, जबकि उसमें इजाफा उस अनुपात में नहीं होता है जिस अनुपात में वो बाहर जाता है।
उदाहरण से समझिए: भारत की अधिकांश डीलिंग डॉलर में होती है। अगर अब आप अपनी मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? जरूरत का कच्चा तेल, खाद्य पदार्थ और इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स अधिक मात्रा में मंगवाएंगे तो आपको ज्यादा डॉलर खर्च करने होंगे। इससे आपको सामान तो मिल जाएगा लेकिन आपका मुद्राभंडार थोड़ा कम हो जाएगा। मान लीजिए आप अमेरिका से कुछ डीलिंग कर रहे हैं। अमेरिका के पास 65,000 रुपए हैं और आपके पास 1000 डॉलर। डॉलर का रेट 65 है तो दोनों के पास फिलहाल समान राशि है। अब अगर आपको अमेरिका से भारत में कोई ऐसी चीज मंगानी है जिसकी कीमत आपकी करेंसी के हिसाब से 6,500 रुपए है तो आपको इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे। यानी अब आपके भंडार में सिर्फ 900 डॉलर रह गए, लेकिन अमेरिका के पास पहुंच गए 71,500 रुपए, यानी अमेरिका के पास हमसे ज्यादा पैसे हो गए। यानी अमेरिका (विदेशी मुद्रा भंडार में) के पास भारत के जो 65,000 रुपए थे वो तो बने ही रहे, लेकिन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में पड़े 100 डॉलर भी उसके पास पहुंच गए। अब भारत जब तक इतनी ही राशि यानी 100 डॉलर का सामान अमेरिका को नहीं दे देगा उसकी स्थिति कमजोर ही बनी रहेगी। यह स्थिति जब बड़े पैमाने पर होती है तो हमारे मुद्राभंडार में से रकम काफी तेजी से कमजोर होती है।
रुपये के कमजोर या मजबूत होने का मतलब क्या है?
अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी इसलिए माना जाता है, क्योंकि दुनिया के अधिकतर देश अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में इसी का प्रयोग करते हैं
विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा पर असर पड़ता है. अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी का रुतबा हासिल है. इसका मतलब है कि निर्यात की जाने वाली ज्यादातर चीजों का मूल्य डॉलर में चुकाया जाता है. यही वजह है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत से पता चलता है कि भारतीय मुद्रा मजबूत है या कमजोर.
अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी इसलिए माना जाता है, क्योंकि दुनिया के अधिकतर देश अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में इसी का प्रयोग करते हैं. यह अधिकतर जगह पर आसानी से स्वीकार्य है.
इसे एक उदाहरण से समझें
अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में भारत के ज्यादातर बिजनेस डॉलर में होते हैं. आप अपनी जरूरत का कच्चा तेल (क्रूड), खाद्य पदार्थ (दाल, खाद्य तेल ) और इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम अधिक मात्रा में आयात करेंगे तो आपको ज्यादा डॉलर खर्च करने पड़ेंगे. आपको सामान तो खरीदने में मदद मिलेगी, लेकिन आपका मुद्राभंडार घट जाएगा.
मान लें कि हम अमेरिका से कुछ कारोबार कर रहे हैं. अमेरिका के पास 68,000 रुपए हैं और हमारे पास 1000 डॉलर. अगर आज डॉलर का भाव 68 रुपये है तो दोनों के पास फिलहाल बराबर रकम है. अब अगर हमें अमेरिका से भारत में कोई ऐसी चीज मंगानी है, जिसका भाव हमारी करेंसी के हिसाब से 6,800 रुपये है तो हमें इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे.
अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ 900 डॉलर बचे हैं. अमेरिका के पास 74,800 रुपये. इस हिसाब से अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भारत के जो 68,000 रुपए थे, वो तो हैं ही, लेकिन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में पड़े 100 डॉलर भी उसके पास पहुंच गए.
अगर भारत इतनी ही राशि यानी 100 डॉलर का सामान अमेरिका को दे देगा तो उसकी स्थिति ठीक हो जाएगी. यह स्थिति जब बड़े पैमाने पर होती है तो हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में मौजूद करेंसी में कमजोरी आती है. इस समय अगर हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार से डॉलर खरीदना चाहते हैं, तो हमें उसके लिए अधिक रुपये खर्च करने पड़ते हैं.
कौन करता है मदद?
इस तरह की स्थितियों में देश का केंद्रीय बैंक RBI अपने भंडार और विदेश से खरीदकर बाजार में डॉलर की आपूर्ति सुनिश्चित करता है.
आप पर क्या असर?
भारत अपनी जरूरत का करीब 80% पेट्रोलियम उत्पाद आयात करता है. रुपये में गिरावट से पेट्रोलियम उत्पादों का आयात महंगा हो जाएगा. इस वजह से तेल कंपनियां पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ा सकती हैं.
डीजल के दाम बढ़ने से माल ढुलाई बढ़ जाएगी, जिसके चलते महंगाई बढ़ सकती है. इसके अलावा, भारत बड़े पैमाने पर खाद्य तेलों और दालों का भी आयात करता है. रुपये की कमजोरी से मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? घरेलू बाजार में खाद्य तेलों और दालों की कीमतें बढ़ सकती हैं.
यह है सीधा असर
एक अनुमान के मुताबिक डॉलर के भाव में एक मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? रुपये की वृद्धि से तेल कंपनियों पर 8,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ता है. इससे उन्हें पेट्रोल और डीजल के भाव बढ़ाने पर मजबूर मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? होना पड़ता है. पेट्रोलियम उत्पाद की कीमतों में 10 फीसदी वृद्धि से महंगाई करीब 0.8 फीसदी बढ़ जाती है. इसका सीधा असर खाने-पीने और परिवहन लागत पर पड़ता है.
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कैसे तय होती है रुपये की कीमत, समझें रुपया और डॉलर का पूरा गणित
बड़ा प्रचलित व्यंग है “भारतीय रुपया सिर्फ एक ही समय उपर जाता है और वो है टॉस का समय”
आज कल रुपये के गिरते भाव के कारण काफ़ी हो हल्ला मचा हुआ है! भारतीया मुद्रा यानी रुपया का मूल्य डॉलर के मुक़ाबले काफ़ी कम हो चुका है! पर क्या आप जानते हैं कि क्या है वो वजह जिसकी वजह से रुपया का मूल्य प्रभावित होता है और कैसे आप देशहित में रुपये को मजबूत करने में अपना योगदान दे सकते हैं! चलिए हम आपको बताते हैं ये सारा गणित. वो भी बिलकुल आसान भाषा में!
बड़ा ही सीधी सी थियरी है. भारत के पास जितना कम डॉलर होगा, डॉलर का मूल्य उतना बढ़ेगा! भारत या कोई भी देश मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? अपने ज़रूरत की वस्तुए या तो खुद बनाते हैं या उन्हें विदेशों से आयात करते हैं और विदेशो से कुछ भी आयात करने के लिए आपको उन्हें डॉलर में चुकाना पड़ता है! उदाहरण के तौर पर यदि किसी देश से आप तेल का आयात करना चाहते हैं तो उसका भुगतान आप रुपये में नही कर सकते. उसके लिए आपको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य किसी मुद्रा का प्रयोग करना होगा. तो इसका मतलब ये है कि भारत को भुगतान डॉलर या यूरो में करना होगा!
काश कि ये देश रुपया स्वीकार कर लेते और हम जितने चाहे रुपये प्रिंट कर के उन्हें दे देते पर वास्तव में ऐसा नही है (वजह जानने के लिए अगली पोस्ट की प्रतीक्षा करें)
अब सवाल ये उठता है कि अंतरराष्ट्रीय खरीददारी करने के लिए हम डॉलर कहाँ से लायें! अपने देश में डॉलर या विदेशी मुद्रा विभिन्न माध्यमों से आती है!
1. निर्यात- देश में बनी वस्तुओ का निर्यात जब हम विदेशो में करते हैं तो उनसे हमें भुगतान के रूप में विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है!
2. विदेशी निवेश- विदेशो की कंपनियाँ जब देश में अपना कारोबार लगती हैं या यदि विदेशी निवेशक हमारे देश में उद्योग या शेयर बाजार में निवेश करते हैं तब भी हमें विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है
3. विदेशो में रहने वेल भारतीय जब विदेशों से कमाया हुआ डॉलर देश में भेजते हैं तब भी हमारा विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता है!
अब हमें अपने खर्चों एवं ज़रूरी वस्तुओं के आयात के लिए डॉलर का भंडार सुरक्षित रखना पड़ता है. जिसे “विदेशी मुद्रा भंडार” भी कहते हैं. यदि किसी कारणवश ये भंडार ख़त्म हो जाता है तो हमारे लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी क्युकि तेल के बिना हमारी सारी अर्थव्यवस्था ठप्प पड जाएगी!
हमारे आयात का बिल और निर्यात के बिल में एक मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? संतुलन आवश्यक है. यदि ये संतुलन खराब होता है तब हमारे यहाँ विदेशी मुद्रा की कमी हो जाती है जिसे “करेंट अकाउंट डेफिसिट” भी कहते हैं! अभी भारत करेंट अकाउंट डेफिसिट की समस्या से गुजर रहा है जिसकी वजह से हमारी मुद्रा का लगातार का अवमूल्यन हो रहा है. जिससे रुपये का मूल्य लगातार गिरता चला जा रहा है!
रुपये को मजबूत करने के लिए क्या किया जा सकता है
1. निर्यात बढ़ाया जाए मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? जिससे की विदेशी मुद्रा की प्राप्ति हो. उत्पादन बढ़ाए जाएँ जिससे की अधिक से अधिक निर्यात हो सके
2. स्वदेशी अपनाओ- विदेशो में बनने वाली ८० पैसे की ड्रिंक यहाँ १५ से २० रुपये में बेचा जाता है! यदि हम स्वदेशी वस्तुओं या प्रयोग करना शुरू कर दें तो इन विदेशी वस्तुओं को आयात करने का खर्च बच जाएगा.
3. तेल का विकल्प- हम बड़ी मात्रा में तेल का आयात करने पर मजबूर हैं क्युकि देश में तेल का उत्पादन माँग के अनुसार नही है. यदि हम तेल पे आश्रित अपनी अर्थव्यवस्था को बदलने की कोशिश करें तो विदेशी भंडार एक बहुत बड़ा हिस्सा हम बचा सकते हैं और इसके लिए हमें तेल के विकल्पों पर विचार करना चाहिए१
4. भारतीयो का स्वर्ण प्रेम- सोना से लगाव काफ़ी पुराना है. विवाह या पर्व त्योहारो पर सोने की माँग में अत्प्रश्चित वृद्धि देखी जाती है जिससे हमारा आयात बिल बढ़ता है!
मोटे तौर पे रुपये को मजबूती देने के लिए हूमें विदेशो से निवेश बढ़ाना होगा. विदेशी निवेशको के लिए अनुकूल माहौल का मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? निर्माण करना होगा! इसके अलावे स्वदेशी अपनाना होगा. जिन चीज़ो को हम देश में बना सकते हैं उनका आयात बंद करना होगा! हर भारतीय को ईमानदारी के साथ भारत का विकास में योगदान देना होगा. उत्पादन जितना बढ़ेगा, निर्यात उतना अधिक होगा, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी!
आशा करता हूँ की अब आपको रुपये और विदेशी मुद्रा का गणित समझ आया होगा. यदि आपका कोई प्रश्न है तो कृपया कॉमेंट के माध्यम से हमसे पूछें!
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